Shloka: Bhagavad Gita: Chapter 3, Shloka 12
इष्टान्भोगान्हि वो देवा दास्यन्ते यज्ञभाविताः |
तैर्दत्तानप्रदायैभ्यो यो भुङ्क्ते स्तेन एव सः || 12 ||
Transliteration:
iṣṭān bhogān hi vo devā dāsyante yajña-bhāvitāḥ
tair dattān apradāyaibhyo yo bhuṅkte stena eva saḥ
Meaning:
The gods, nourished by sacrifices, will give you the desired necessities of life. He who enjoys these gifts without offering them in return is verily a thief.
Explanation:
इस श्लोक में भगवान कृष्ण मनुष्य और देवताओं के बीच पारस्परिक संबंध की व्याख्या करते हैं। मनुष्य द्वारा किए गए यज्ञों के परिणामस्वरूप देवता मनुष्य को जीवन की सभी आवश्यकताएँ प्रदान करते हैं। बलिदान (यज्ञ) देवताओं को दी जाने वाली पूजा और प्रसाद हैं, जो बदले में उन्हें प्रसन्न करते हैं और उन्हें भक्तों पर आशीर्वाद देने के लिए प्रेरित करते हैं। कृष्ण आगे इस बात पर जोर देते हैं कि जो लोग देवताओं द्वारा प्रदान किए गए लाभों और उपहारों का बिना कुछ लौटाए आनंद लेते हैं, वे चोरों के समान हैं। यह कृतज्ञता के महत्व और पूजा और बलिदान के माध्यम से वापस देने के कर्तव्य पर जोर देता है। इस पारस्परिक आदान-प्रदान में भाग लेने से ब्रह्मांड में सद्भाव और समृद्धि बनी रहती है।

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