Sanskrit (Devanagari):
कर्मणैव हि संसिद्धिमास्थिता जनकादयः |
लोकसंग्रहमेवापि सम्पश्यन्कर्तुमर्हसि ||
Transliteration:
karmaṇaiva hi saṁsiddhim āsthitā janakādayaḥ
lokasaṅgraham evāpi sampaśyan kartum arhasi
Translation:
"King Janaka and others attained perfection solely by action. You should perform your work also with a view to guiding people and for the welfare of the world."
अनुवाद:
"राजा जनक और अन्य लोगों ने केवल कर्म से ही पूर्णता प्राप्त की थी। तुम्हें भी लोगों का मार्गदर्शन करने और विश्व के कल्याण की दृष्टि से अपना कर्म करना चाहिए।" इस श्लोक में, भगवान कृष्ण अर्जुन को समझाते हैं कि जनक जैसे महान राजाओं ने अपने कर्तव्यों के पालन के माध्यम से आत्म-साक्षात्कार और पूर्णता प्राप्त की। कृष्ण समाज और दुनिया के कल्याण के लिए कार्रवाई के महत्व पर जोर देते हैं, सुझाव देते हैं कि अर्जुन को भी अधिक अच्छे के लिए निस्वार्थ भाव से अपने कर्तव्यों का पालन करना चाहिए।

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