Bhagavad Gita: Chapter 3, Shloka 10
Sanskrit (Devanagari):
सहयज्ञाः प्रजाः सृष्ट्वा पुरोवाच प्रजापतिः।
अनेन प्रसविष्यध्वमेष वोऽस्त्विष्टकामधुक्॥ १०॥
Transliteration:
saha-yajñāḥ prajāḥ sṛṣṭvā purovāca prajāpatiḥ |
anena prasaviṣyadhvam eṣa vo'stviṣṭa-kāma-dhuk || 10 ||
Translation:
In the beginning, the Creator, having created mankind together with sacrifices, said: "By this shall you propagate; let this be the milker of your desires."
Commentary and Analysis:
इस श्लोक में, भगवान कृष्ण यज्ञ की अवधारणा को जीवन के निर्माण और पोषण के अभिन्न अंग के रूप में संदर्भित करते हैं।
1. सृजन और बलिदान:
सृष्टिकर्ता (प्रजापति) ने यज्ञ की संस्था के साथ-साथ मनुष्यों की रचना की। यह दर्शाता है कि बलिदान ब्रह्मांड की संरचना और मानव जीवन के लिए मौलिक हैं।
2. त्याग से समृद्धि:
सृष्टिकर्ता ने निर्देश दिया कि यज्ञ करने से मनुष्य समृद्ध होंगे और अपनी इच्छाएँ पूरी करेंगे। बलिदान को दुनिया में सद्भाव और संतुलन बनाए रखने के साधन के रूप में देखा जाता है।
3. पूर्ति के स्रोत के रूप में यज्ञ:
यज्ञ को "इष्ट-काम-धुक" के रूप में वर्णित किया गया है, जिसका अर्थ है वांछित वस्तुओं को दूध देने वाला। इसका तात्पर्य यह है कि निःस्वार्थ कर्म और बलिदान करने से भौतिक और आध्यात्मिक दोनों इच्छाओं की पूर्ति होती है।

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